सृष्टि-निर्माण और सभ्यता-संस्कृति की उच्च धारणा के निर्माण की दृष्टि से हमारा भारतवर्ष विश्व का प्राचीनतम देश है। अपनी उदात्त और महान् सभ्यता-संस्कृति के कारण ही नहीं, प्रकृति और भौगोलिक निर्माण की दृष्टि से भी भारत सृष्टि की सबसे सुन्दर रचना है। कविवर माखनलाल चतुर्वेदी के शब्दों में भारतवर्ष की प्रकृति और रचना के बारे में उचित ही कहा गया है कि –
“तीन तरफ सागर की लहरें जिसका बने बसेरा,
पतवारों की नियति सजाती जिसका साँझ-सवेरा।
बनती हों मल्लाह मुट्ठियाँ सतत भाग्य की रेखा,
रत्नाकर रत्नों को देता हो टकराकर लेखा।”
मात्र यही नहीं, सभी प्रकार के प्राकृतिक सौन्दर्यों और वैभव से सम्पन्न हमारा देश संसार का सबसे बड़ा जनतंत्र भी है। यह विश्व की प्राचीनतम मानव-संस्कृति की जन्म-भूमि तो है ही, वर्तमान जनसंख्या की दृष्टि से विश्व का दूसरा महान राष्ट्र भी है। अपने विस्तार में यह विश्व का सातवाँ महादेश है।
भारत ऋषियों का तपोवन है, प्रकृति का उपवन है, इसीलिए प्रसिद्ध शायर इकबार के शब्दों में हम गाया करते हैं – ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।’
उत्तर दिशा में स्थिति हिमालय हमारे देश का प्रहरी है जिससे बड़ा संसार में अन्य कोई पर्वत नहीं। कवि रामधारीसिंह ‘दिनकर’ ने हिमालय के बारे में उचित ही कहा है कि –
“साकार दिव्य, गौरव-विराट्,
पौरुष का पंजीभूत ज्वाल।
मेरी जननी का हिमकिरीट,
मेरे भारत का दिव्यभाल।”
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हमारे इस महान देश में गंगा जैसी नदी बहती है, जिससे पवित्र अन्य कोई जलधारा नहीं। यमुना, सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब, झेलम, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, गंडक, कोसी, ताप्ती, महानदी आदि चाँदी की पिघती धारा-सी नदियाँ इस देश में बहकर इसे हरा-भरा बनाती हैं। इस देश के सजीव प्राकृतिक सौंदर्य की तुलना में स्वर्ग का कल्पनालोक तुच्छ माना जाता है।
यहाँ के हरे-भरे मैदान, बर्फ से चमकती चोटियाँ, रुपहली सुनहली बदलियों की गरज से गूँज उठने वाला आकाश, लहराता नीला सागर, यहाँ के फल-फूल और चहचहाते पक्षियों, बहुरंगे पशुओं को देखने के लिए ही तो वेद-मंत्रों में ऋषियों-मुनियों ने भी भगवान से प्रार्थना की – ‘हे प्रभो! हम सौ वर्ष तक जियें। हम सौ वर्षों तक मातृभूमि के शम्य-श्यामल रूप को देखते हुए न अघायें!’
बनावट में कितना सुघड़ है हमारा देश ! कौन-सा वह रंग है जो प्रकृति ने हमारे देश में नहीं बिखेरा ? कौन-सी वह ऋतु है जो यहाँ नहीं मुस्कराती ? वह उन्हीं छ: ऋतुओं का रँगीला देश है जहाँ हर रंग की मिट्टियाँ विद्यमान हैं – गोरी, काली, भूरी, साँवरी, चिकनी, रेतीली। सब प्रकार की जलवायु यहाँ विद्यमान है – गर्म से गर्म, शुष्क से शुष्क और तर से तर। अत: यहाँ हर रंग के फूल खिलते हैं, हर रंग की फसलें उगती हैं और हर रंग के लोग मिलते हैं – काले, गोरे और गेहुँए। हमारे ऊपरी रंग यद्यपि भिन्न-भिन्न हैं; किन्तु हमारे भीतर एक ऐसा रंग भी है, जो देश-भर में कहीं नहीं बदलता – वह है भारतीयता का रंग। देशप्रेम और अपनी एक राष्ट्रीयता का रंग हम पर इतना गहरा है कि इसके सामने जाति, धर्म, सम्प्रदाय और भाषा की विभिन्नता के सभी रंग फीके पड़ जाते हैं। ऐसी विविधता, अनेकता में एकता विश्व के अन्य किसी देश में सुलभ नहीं।
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समुद्र और पर्वत हमारे देश की सीमा का निर्माण करते हैं। उन सीमाओं की एकता में बँधा यह देश एक ही फुलवारी की क्यारियों की भाँति बाईस राज्यों में विभक्त है – आन्ध्र, असम, बिहार, गुजरात, गुजरात, जम्मू-कश्मीर, केरल, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, नागालैंड, उड़ीसा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल, मेघालय, त्रिपुरा, सिक्किम और मणिपुर। इसी प्रकार अंडमान-निकोबार आदि नौ केन्द्र-शासित प्रदेश हैं और इन सबके संगठित रूप का नाम है भारतवर्ष।
जैसे फुलवारी वस्तुत: एक होती है, किन्तु उसका माली कार्य की सुविधा के लिए उसमें भिन्न-भिन्न क्यारियाँ बना लेता है, उसी प्रकार हमारा भारत भी मूलत: एक महादेश है। प्रशासन की सुविधा के लिए उसमे छोटे-बड़े अनेक प्रदेश प्रकृति ने ही बना दिये हैं। सबके अपने-अपने रंग, अपने-अपने नाम और अपनी-अपनी बोलियाँ और भाषाएँ हैं। कोई बड़ी समस्या आते ही छोटी-मोटी समस्त सीमाबन्दियाँ समाप्त हो जाती हैं, प्रादेशिकता दब जाती है और सारा भूखण्ड एक राष्ट्र होकर बड़ी से बड़ी समस्याओं के समाधान में जुट जाता है। 1962 में चीन, 1965 और 1971 में पाकिस्तान के आक्रमणों के समय प्रकट हुई हमारी एकता इस बात का प्रत्यक्ष और जीवन्त प्रमाण है। इस प्रकार अनेक राज्य मिल कर जो फलता-फूलता समृद्ध और एक विशाल परिवार बनाते हैं, वही हमारा भारत है। भारत, जो अपनी समग्रता में विश्व का महान् और विशालतम गणराज्य है।
सहज मानवीय सद्भावना और विश्व-शान्ति हमारे महान् देश का महान् आदर्श है। कविवर दिनकर के शब्दों में –
“भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भूमण्डल भर का है।
जहाँ कहीं एकता अखण्डित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहाँ खड़ा, भारत जीवित भास्वर है।”
यहाँ का छोटा या बड़ा प्रत्येक निवासी अपने-आपको भारत माँ का पुत्र मानता है। भारत हमारी माँ है, इसी मूल भावना ने हमें एकता के सुदृढ़ सूत्र में बाँध रखा है :
“जिसकी रज में लोट-लोटकर बड़े हुए हैं,
घुटनों के बल सरक-सरककर खड़े हुए हैं।
परमहंस सम बाल्यकाल में सब सुख पाये,
जिसके कारण धूल-भरे हीरे कहलाये।”
भला उस माँ के समान भारत के गौरव को बढ़ाने के लिए कौन भारतीय अग्रसर नहीं होगा!
भारत में वर्दी वाले सैनिक दस-बारह लाख ही हो सकते हैं, किन्तु बिना वर्दी के सिपाहियों की संख्या अस्सी करोड़ से भी अधिक है। गाँव-गाँव विदेशी आक्रमण के विरुद्ध खड़ा हो जाता है। बच्चे-बच्चे की जुबान पर देशभक्ति का नारा मुखर हो जाता है। सभी लोग देश के नाम पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर हो जाते हैं। हमने अपनी एकता से ही देश के गौरव को अक्षुण्ण रखा हुआ है और आगे भी हमेशा बनाए रखना है।
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महान् भारत के गौरवपूर्ण स्वरूप और इतिहास की रचना के लिए हमें कई मोर्चों पर युद्ध लड़ने हैं – आर्थिक, राजनीतिक, कृषि, व्यवसाय एवं शिक्षा के मोर्चो पर हमें प्रगति करनी है। अन्न के मामले में हम आत्मनिर्भर बन गये हैं। विदेशों से आयातित अन्न की हमें आवश्यकता नहीं रही। तेल और कल-पुर्जों, मशीनरी आदि क्षेत्रों में भी हम आत्मनिर्भर होते जा रहे हैं। गाँवों-नगरों में निरक्षरता और औद्योगिक पिछड़ापन हमारे देश की अभी भी विकट समस्याएँ हैं, उन्हें युद्धस्तर पर सुलझाना है।
देश की समस्याओं को सुलझाने के लिए देश का हर नागरिक सिपाही है। वह योद्धा भी देश का सिपाही है जो सीमा पर लड़ता है। वह किसान भी देश का सिपाही है जो खेत में हल चलाता है। वह शिक्षक भी देश का सिपाही है जो विद्यालय में पढ़ाता है। वह विद्यार्थी भी देश का सिपाही है जो कल राष्ट्र की सेवा करने के लिए आज योग्यता बढ़ा और तैयारी कर रहा है। जो जहाँ काम करता है वहीं उसका मोर्चा है। शिष्य अपने विद्यालय में, डॉक्टर अपने अस्पताल में, ड्राइवर रेल के इंजन में, इंजीनियर अपने कारखाने में और अन्य नागरिक अपने-अपने काम में लगे हुए सैनिक हैं; इस प्रकार की मान्यता ही वास्तव में देश का गौरव बढ़ा सकती है। देश का गौरव बढ़ाना ही प्रत्येक नागरिक का लक्ष्य हुआ करता है। जहाँ करोड़ों लोग शान्ति के एक सूत्र में बँधे हैं, जहाँ सभी धर्मों और संप्रदायों के लोग एक संस्कृति में गुँथे हैं, ऐसा उदार और मिला-जुला है हमारा भारत जिसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। कविवर जयशंकर प्रसाद के शब्दों में हमारा यही कत्र्तवय होना चाहिए कि –
“जियो तो जियें उसी के लिए, यही अभिमान रहे, यह हर्ष
निछावर कर दें हम, सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।”
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