दो व्यंजनों के बीच स्वर का स्थान
जब दो व्यंजनों के बीच में स्वर आता है तो प्रथम और द्वितीय स्थान पर तो यथा नियम पहले व्यंजन के पश्चात् ही रखा जाता है पर जब तीसरे स्थान पर स्वर आता है तो पहले व्यंजन के तीसरे स्थान पर न रख कर आगे आने वाले व्यंजन के पहले तृतीय स्थान पर रखा जाता है, क्योंकि यह सुविधाजनक होता है। ऐसा करने से पहले व्यंजन के बाद तृतीय स्थान की मात्रा और उसके आगे आने वाले व्यंजन के तृतीय स्थान की मात्रा में कोई उलझन नहीं पड़ती।
कभी-कभी ऐसा होता है कि दो व्यंजनों के मिलने के कारण तीसरे स्थान पर जगह नहीं बचती। इन्हीं बातों को दूर करने के लिए उपर्युक्त नियम रखा जाता है।
हिन्दी में एक अक्षर के बाद एक ही मात्रा लगती है इसलिये व्यंजन के पहले किसी मात्रा के आने का डर नहीं रहता। छोटी ‘इ’ की मात्रा नागरी-लिपि में यद्यपि अक्षरों के पहले लगती है पर उसका उच्चारण अक्षरों के बाद ही होता है। इसलिए संकेत-लिपि में वह मात्रा व्यंजन के बाद ही रखी जाती है। ऐसे शब्दों में जहाँ मात्रा के बाद कोई दूसरा स्वर आता है, जैसे – खाइये, पिलाइये आदि। ऐसी स्थिति में किस तरह लिखना चाहिए, इसका नियम आगे चलकर मिलेगा।
अत: उपर्युक्त सुविधा के लिये तृतीय स्थान की मात्रा – नं 1 की तरह लगानी चाहिए – नं 2 की तरह नहीं। जैसे – चित्र नीचे
ऊपर के चित्र नं 2 के पहले संकेत में यह मालूम होता कि तृतीय स्थान ‘ट’ के बाद है या ‘क’ के पहले तथा दूसरे में ‘क’ के बाद है या ‘प’ के पहले। इसीलिये इस प्रकार मात्रा लगाने से पढ़ने में बड़ी उलझन होती है। अत: तृतीय स्थान की मात्रा नं 1 की तरह ही लगाना ठीक और सुविधाजनक है।
बहुधा ऐसे भी शब्द प्रयोग में आ जाते हैं जिनकी रेखाओं के मिलने पर तृतीय स्थान का भ्रम नहीं रह जाता है तृतीय स्थान बिल्कुल साफ मालूम होता है। अत: ऐसे शब्दों की मात्रा पहले के नियम के अनुसार ही लगानी चाहिए। जैसे – चित्र नीचे
जिस प्रकार मात्राओं अथवा स्वरों के तीन स्थान – प्रथम, द्वितीय और तृतीय नियत हैं और उनका स्थानानुसार भिन्न-भिन्न उच्चारण होता है उसी प्रकार रेखाओं को शब्द-ध्वनि के अनुसार लिखे जाने के क्रमश: तीन स्थान – प्रथम लाइन के ऊपर, द्वितीय लाइन पर तथा तृतीय लाइन काटकर लिखने का भी नियम है। यह नियम विस्तृतरूप से आगे ‘स्वर-लोप करने के नियम’ के अन्तर्गत मिलेगा।
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